दोस्तों, कल रात मैं पूरे एक साल बाद रामा पार्क गया. रसरंजित! किंचित मदांध! और यह देख कर बेहद खुश हुआ कि वह पूरा इलाका आज भी वैसा ही है जैसा मैं उस छोड़ कर गया था. पश्चिमी दिल्ली मे यह इलाका उत्तम नगर से द्वारका मोड़ के रास्ते मे है. साल २००३ के आख़िर मे जब मैं दिल्ली आया तो थोड़े दिन उत्तम नगर मे रहने के बाद मैंने रामा पार्क मे एक कमरे का मकान किराये पर लिया. यह मकान तिलक नगर मे रहनेवाले किसी गुप्ता जी का था. नीचे दूध की डेरी थी, जिस पर उनका बेटा सोनू बैठता था और ऊपर दो कमरों का छोटा-सा मकान था. मुझे एक कमरे की जरूरत थी, सो मुझे एक कमरा-रसोई महज सात सौ महीना के किराय पर मिल गया. वह मकान मेरे लिए सुनीता दीदी ने खोजा था. सुनीता दीदी से मेरा परिचय फूफा जी के जरिये हुआ था. फूफा जी मेरे कोई रिश्तेदार नही थे.
वे दिल्ली मे मेरे संघर्ष के दिन थे. हमेशा फाकाकशी रहती. फूफा जी के तीनमंजिले मकान मे एक परिचित के ज़रिए मैं मकान किराय पर लेने गया था. मकान के ग्राउंड फ्लोर पर उनकी कपड़े और राशन की दुकान थी और बाकी के तीन फ्लोर किरायादारों के लिए थे. कपडों की दुकान पर वे ख़ुद बैठते थे और राशन की दुकान पर उनका भतीजा पंकज. बाद मे मुझे पता चला कि ये दुकान-मकान कुछ भी उनका नही है. उनके सगे साले-साली यानी पंकज के माता-पिता का निधन उसके बचपन मे ही हो गया था. पंकज के पिता की राशन की दुकान थी और वह सूद पर पैसे देता था. सात साल के बेटे के साथ-साथ अपनी दुकान और बाज़ार मे अपने बीसियों लाख छोड़ कर मरा था . फूफा जी की कोई औलाद नही थी. जब कोई रिश्तेदार बच्चे और दुकान की जिम्मेवारी सँभालने आगे नही आया तो फूफा जी ने उसकी जिम्मेदारी ली. बाज़ार से पैसे वसूल कर यह मकान बनवाया...पंकज के फूफा होने की वजह से वे जगत फूफा हो गए...खैर, मैंने उनके मकान मे फर्स्ट फ्लोर का दो कमरों का मकान किराये पर ले लिया. मगर जल्द ही उनको मेरी हालत का अंदाजा हो गया. फूफा जी ने मुझसे एक महीने का किराया नही लिया और मैं उनके पैसे लौटा सकूँगा या नही, बिना इस बात की चिंता किए मेरी जब-तब मदद करते रहे. सुनीता दीदी फूफा जी की दुकान से साडियाँ ले जा कर बेचती थी. जब तक मैं रामा पार्क मे रहा फूफा जी की दुकान पर ठाट से बैठ कर चाय पीता, पान खाता रहा. सुनीता दीदी के घर जब-तब नाश्ता, दोपहर और रात का खाना खाता रहा....... यह एक बहुत लम्बी कहानी है , जिसके ज़रिए मैं बताना चाहता हूँ कि जगहें और घर हमारे देखने और सोचने की प्रक्रिया को कितनी गहराई से प्रभावित करती है......बाकी कल लिखूंगा....मिहिर, विनीत, राकेश जी और वेद प्रकाश जी ने कल गल्पयान के पहले पोस्ट को देख कर मेरी जो होसलाअफजाई की यह सीरीज़ लिखने का साहस उसी का नतीजा है. हार्दिक धन्यवाद !
Wednesday, June 11, 2008
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