Thursday, June 12, 2008

बगैर उनवान के : दो

कल मैंने इस सीरीज़ की पहली पोस्ट डाली और पश्चिमी दिल्ली के रामा पार्क मे दिल्ली के अपने शुरूआती दिनों की चर्चा करते हुए थोड़ा उलझ गया. इस माध्यम से अभी मेरा बहुत दोस्ताना सम्बन्ध नही बन पाया है . मैं जो कंप्यूटर इस्तमाल कर रहा हूँ , अभी उसमे हिन्दी टूल किट भी डाउनलोड नही हो पा रहा, सो हिन्दी लिखने के लिए फिलहाल मैं रोमन कि शरण मे हूँ. खैर, कल जैसा कि मैंने लिखा कि मैं बताना चाहता हूँ कि जगहें हमारे देखने और सोचने के ढंग को कितनी गहराई से प्रभावित करती है . क्या पता मैं क्या और कितना बता पाऊ! क्योकि अब तक तो कागज पर खूब जमा कर लिखने की आदत थी...
तो कल मैं फूफा जी और सुनीता दीदी के बारे मे बता रहा था... मगर आज लग रहा है कि उनके बारे मे कुछ भी बताने से पहले मुझे थोड़ा पीछे जाना होगा, अपने अन्दर के अंधेरे कोनों के रसायन मे उस दिल्ली की गंध खोजनी होगी, जिसका सम्बन्ध फूफा जी और सुनीता दीदी के साथ मेरे संबंधों से है।
वह साल 92 की गर्मियों का कोई दिन था. आधी रात को मैं अपने बड़े भाई और बचपन के दोस्त परकू के साथ पुरानी दिल्ली स्टेशन पर नींद से ऊँघती आँखों मे थोड़ी-सी दहशत और ढेर सारी उत्सुकता लिए हजारों लोगों की भीड़ मे घिस्टा चला जा रहा था. वह शायद बी जे पी की गरीब रैली थी, मुफ्त दिल्ली घूम आने के लोभ मे हम जिसके साथ हो लिए थे.

वह मेरी इस तरह की पहली यात्रा थी. आज सोचता हूँ तो दहशत से भर जाता हूँ कि भेडं-बकरी की तरह लद कर इतनी मुसीबत झेल कर हम क्या लेने, क्या पाने दिल्ली आय थे ?
भोपुओं की अश्लील आवाज़ चिल्ला-चिल्ला कर रैली मे आय उन हजारों लोगों का स्वागत कर रही थी... झुंड के झुंड लोग अपने लिए लाल किला मे बने तम्बुओं मे जा रहे थे...आधी रात मे इस महानगर के तरह-तरह के अंधेरों और तरह-तरह के उजालों मे मैं दिल्ली के आबनुसी रंगों और जादूई गंधों को अपने भीतर उतरते देख रहा था...........

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