Tuesday, June 17, 2008

बगैर उनवान के : तीन

दोस्तों
बड़ी मुश्किल है! मैंने राम पार्क मे बिताये दिल्ली के अपने शुरूआती दिनों के बारे मे लिखना शुरू किया और 16 साल पीछे पहुच गया, जब पहली बार दिल्ली के अबनूसी रंगों और गंधों से मेरा सामना हुआ था. आधी रात को रैली में आए हजारों की भीड़ मे चलते हुए भी पुरानी दिल्ली की जादूई गलियाँ मुझे बिल्कुल अकेला छोड़ दे रही थी...वो गलियाँ न जाने किन रहस्यों तक ले जातीं थी यह आज तक मै नही जान पाया. उसके बाद कई बार इन गलियों मे जाने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नही लगा. उस रात यह 'जानना' मैंने खो दिया!...भीड़ के साथ घिसटते हुए मै लाल किला मैदान पंहुचा. वहां मैंने रहस्यमयी अंधेरे मे डूबे विराट लाल किले को देखा...मैंने अपना लाल किला खो दिया था!...मेरा लाल किला यहाँ नही था...कहीं नही था...बचपन मे देखे दूरदर्शन के धारावाहिक मे बहादुर शाह ज़फर की लम्बी सफ़ेद दाढ़ी...वो गीत-संगीत...ये शायरों के नगमे, कवियों की कल्पनाएँ...है कितना बदनसीब ज़फर कि दो गज ज़मी भी न मिली कू-ऐ-यार में...यह मेरा लाल किला था...उस रात मैंने अपना यह लाल किला खो दिया था...

1 comment:

Unknown said...

बोलो लालकिला सुंदर है तो जाने. स ही होना चाहिए जान लो कुछ और नहीं।